भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ। याभ्यां बिना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्॥
तुलसीदास श्रद्धा और विश्वास को उमा और शिव का रूप मानते हैं और यह कहते हैं कि योग में सिद्धि प्राप्त करने वाले सिद्ध भी बिना श्रद्धा और विश्वास के अंतर्स्थित ईश्वर की प्राप्ति नहीं कर सकते। जिस किसी भी चीज को हम जानना चाहते हैं उसके अस्तित्व को बिना जाने दिल से मान लेने को श्रद्धा कहते हैं। मान लेने के उपरांत उस पर निरंतर विश्वास का बना रहना ही फलोत्पादक होता है, ऐसा मन में धारण करना सिद्धि प्राप्त करने के लिये नितांत आवश्यक है।
तुलसीदास के इस कथन में मनुष्यों में चुनिंदे आध्यात्मिक उत्थान की चेष्टा में रत होने वाले सौभाग्यशाली व्यक्तियों की प्रीति होगी। इससे यह अर्थ निकलता है कि सामान्य मानव में श्रद्धा एवं विश्वास दोनों की बड़ी कमी होती है इस कारण अध्यात्म में उन्नति प्राप्त करना तो दूर की बात है, अपने भौतिक जीवन में भी बहुतायत से लोग जो प्राप्त करना चाहते हैं वह प्राप्त नहीं कर पाते। “भावना” (imagination) का सही निर्माण इच्छित फलोत्पादक होता है और भावना का श्रद्धा और विश्वास की कमी के कारण सही निर्माण नहीं होता है इसलिये वाँछित फल भी प्राप्त नहीं होता है। याद रखने की बात है कि श्रद्धा एवं विश्वास के साथ किए गये हमारे कर्म अवश्य ही ईश्वर कृपा को आकृष्ट कर वांछित फल प्रदान करने की सामर्थ्य रखते हैं।